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हव॑ एषा॒मसु॑रो नक्षत॒ द्यां श्र॑वस्य॒ता मन॑सा निंसत॒ क्षाम् । चक्षा॑णा॒ यत्र॑ सुवि॒ताय॑ दे॒वा द्यौर्न वारे॑भिः कृ॒णव॑न्त॒ स्वैः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hava eṣām asuro nakṣata dyāṁ śravasyatā manasā niṁsata kṣām | cakṣāṇā yatra suvitāya devā dyaur na vārebhiḥ kṛṇavanta svaiḥ ||

पद पाठ

हवः॑ । ए॒षा॒म् । असु॑रः । न॒क्ष॒त॒ । द्याम् । श्र॒व॒स्य॒ता । मन॑सा । निं॒स॒त॒ । क्षाम् । चक्षा॑णाः । यत्र॑ । सु॒वि॒ताय॑ । दे॒वाः । द्यौः । न । वारे॑भिः । कृ॒णव॑न्त । स्वैः ॥ १०.७४.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:74» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:5» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एषाम्) इन सैनिकों का (हवः-असुरः) घोषशब्द राजा का प्रेरक है (द्यां नक्षत) आकाश को व्यापता है (श्रवस्यता मनसा) राजा के यश को चाहते हुए मन से (क्षां निंसत) पृथिवी को चूमता है-स्पर्श करता है (यत्र देवाः) जिस राष्ट्र में या राजा के होने पर उसके निमित्त कल्याण साधने के लिए विद्वान् (चक्षाणाः-सुविताय) ज्ञान से प्रकाशमान विद्वान् वर्तमान रहते हैं, (द्यौः-न) जैसे सूर्य (स्वैः-वारेभिः) अपनी अन्धकारनाशक किरणों से (कृणवन्त) प्रकाश करता है, वैसे वे विद्वान् ज्ञान का प्रकाश करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - राष्ट्र में सैनिकों का घोष शासक को प्रेरित करनेवाला है। वह आकाश में व्यापनेवाला और पृथिवी को छूनेवाला होना चाहिए तथा विद्वान् लोग राष्ट्र में ज्ञान का प्रकाश ऐसे फैला दें, जैसे सूर्य अपनी किरणों से प्रकाश फैलाता है ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (एषाम्-हवः-असुरः) एषां सैनिकानां घोषशब्दः राज्ञः प्रेरकः (द्यां नक्षत) आकाशं व्याप्नोति (श्रवस्यता मनसा क्षां निंसत) राज्ञो यशः काङ्क्षमाणेन मनसा पृथिवीं चुम्बति स्पृशति “निंसते चुम्बति” [ऋ० १।१४४।१ दयानन्दः] (यत्र देवाः-चक्षाणाः-सुविताय) यस्मिन् राष्ट्रे राजनि वा तन्निमित्तं कल्याणसाधनाय विद्वांसो ज्ञानेन प्रकाशमानाः संवर्तन्ते (द्यौः-न स्वैः-वारेभिः कृणवन्त) यथा सूर्यः स्वकीयैरन्धकारनिवारकै रश्मिभिः प्रकाशं करोति, तथा ते ज्ञानप्रकाशं कुर्वन्ति ॥२॥